Monday, July 17, 2006

अरे ओ हिन्दी ब्लॉगियों!

मैं यह पूछ्ना चाहता हूं कि क्या हम जब बोलना या लिखना शुरु करते हैं तो उसके पीछे क्या उद्देश्य होते हैं? क्या हम इसलिए लिखना शुरु करते हैं कि हम किसी भाषा में बड़ बड़ करना चाहते हैं या इसलिए कि हम कुछ कहना चाहते हैं?

कुछ समय पहले मैंने एक चिट्ठा लिखना शुरु किया। उसका नामकरण किया - क्या? क्यों? कैसे?। नारद के सम्बद्ध अधिकारियों ने मान लिया कि यह 'हिन्दी चिट्ठा' है । अब नाम तो अपने देश का भी भारत है - क्या यहां सारा कार्य भारतीय भाषाओं में ही होता है? बात यह है कि मेरी इच्छा थी कि एक चिट्ठा लिखना शुरु किया जाए और नारद ने मुझसे ऐसा कोइ समझौता नहीं किया कि यदी मैं इस चिट्ठे को हिन्दी के लिए आरक्षित कर दूंगा तो ही वे मेरे चिट्ठे में आनी वाली सब प्रवृष्टियों की झलक नारद में दिखलाएंगे!

नारद मेरे चिट्ठे की झलक अपने जाल स्थल पर प्रकाषित कर रहा है - इस बात का भी मुझे पता तब चला जब मेरी एक अंग्रेज़ी प्रवृष्टि पर कुछ अजीब टिप्पणियां पढने को मिलीं। वे लोग कहना तो यह चाहते थे कि मैंने हिन्दी भाषा के जाल स्थल (नारद) में अंग्रेज़ी प्रवृष्टि क्यों भेजी है पर वे बात को कुछ और ही दिशा में मोड़ते दिखे। आज अफसोस की बात है कि अंग्रेज़ी के व्यावहारिक ज्ञान के बिना संगणक का ज्ञान लगभग नामुमकिन सा ही है। पर फिर भी वे, जो ब्लॉगिंग करते हैं, यह जतलाना चाहते थे कि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती। कौन मानेगा उनकी बात? जिस दिन मुझे ऐसा प्राणी धरती पर घूमता मिलेगा जिसे अंग्रेज़ी का कख भी नहीं आता होगा और ब्लॉगिंग कर रहा होगा - मुझसे प्रसन्न दूसरा व्यक्ती ना होगा।

खैर इस प्रसंग को छोड़ें - कुछ समय से मुझे हिन्दी ब्लॉगियों से एक शिकायत है। अरे यार, ये हिन्दी में लिखने के लिए - बधाई है - बधाई है, बन्द करो! इससे आप किसी का कोइ भला नहीं करने वाले। यदी आपको लेख का मसाला विचारोत्तेजक लगता है, यदी आपको यह लगता है कि लेखक ने 'विशय' की बहस को किसी प्रकार से समृद्ध किया है तब निश्चित ही वह बधाई का पात्र बन जाता है।

मैं अपने इस चिट्ठे से दो वर्गों को निवेदन करना चाहूंगा - नारद के अधिकारियों से और हिन्दी ब्लॉगियों / प्रेमियों से।

नारद के अधिकारी गण आप लोग श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं। मैं आपकी व्यावहारिक कठिनायी भी समझ रहा हूं पर हर हिन्दी नामांकित ब्लॉग की हर प्रवृष्टि हिन्दी में ही होगी ऐसा ना सोचें। कृपया उन व्यक्तियों को जो नारद के माध्यम से प्रकाषित होना चाहते हैं उन्हें नियमों से अवगत करवाएं।

हिन्दी ब्लॉगियों / प्रेमियों से मेरा निवेदन यही है कि बात मुद्दे की करें और भाषा को अपने आप में मुद्दा ना बना लें। आज 'मुझे तो अंग्रेज़ी आती ही नहीं' के रवैये से क्या हम स्व-भाषा प्रेम दर्शा रहे हैं? आज जिसे अंग्रेज़ी नहीं आती वह व्यावहारिक रूप से भारत में अनपढ है! हिन्दी चलचित्रों की कास्टिंग तक रोमन में होती है। मुझे अंग्रेज़ी आती है पर मैं हिन्दी का विकल्प चुनता हूं। मुझे अंग्रेज़ी आती है पर मैं जब अपनी बात कहना चाहता हूं तब हिन्दी में बोलना पसंद करता हूं। जो मुद्दे के ऊपर अंग्रेज़ी में अपनी बात कहना चाहता है उसे कहने दें - वह मुद्दे की बहस को समृद्ध ही करेगा। जब हमारी संख्या बढ जाएगी, हिन्दी मात्र में ब्लॉगिग करने पर बधाई सन्देश रुक जाएंगे और हिन्दी के ब्लॉगों के अंदर ही वैचारिक दृष्टिकोणों की विविधता होगी, तब शायद आप अंग्रेज़ी को वैसे ही हाशिए पर बैठने के लिए कह सकें जैसे स्पेनिश को या ग्रीक को।

रही बात मेरी - हिन्दी मेरी मां है। और अंग्रेज़ी मेरे हाथ एक उपयोगी उपकरण। दोनों से मैने काफी प्राप्त किया है तो मैं दोनो भाषाओं में लिखूंगा, अपने श्रोताओं को देखते हुए, अपने उद्देश्य के अनुसार। अपने मूड के अनुसार!

क्या हम हिन्दी को भी वैसा ही उपयोगी दर्जा नहीं दिलवा सकते? दिलवा सकते हैं पर आज की तरीख में अंग्रेज़ी के प्रयोग के बिना नहीं। कैसे दिलवा सकते हैं इस पर फिर कभी...

2 comments:

अनुनाद सिंह said...

आपके लेख के अन्तिम अनुच्छेद को थोडा सा परिवर्तित करना चाहिये, क्योंकि इसका अर्थ भ्रामक हो सकता है| मेरे खयाल से इसे इस प्रकार होना चाहिये:

क्या हम हिन्दी को भी वैसा ही उपयोगी दर्जा नहीं दिलवा सकते? दिलवा सकते हैं पर हर कठिनाइ के बावजूद हिन्दी का प्रयोग करने पर ही यह सम्भव हो सकता है| मुश्किलों का बहाना करके हिन्दी का प्रयोग टालते रहेंगे तो स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेगी या बदतर होती जायेगी|

आलोक said...

मुद्दे की करें और भाषा को अपने आप में मुद्दा ना बना लें।

आपका लेख अब, करीब एक साल बाद पढ़ रहा हूँ, पर आपकी इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ। साथ ही, साल भर में काफ़ी बदलाव आए हैं, लोग मु्द्दे की बात करने लगे हैं।