Friday, May 19, 2006

अनुगूँज १९: संस्कृतियाँ दो और आदमी एक

(वर्तनी की असंख्य अशुद्धियों पर ध्यान ना दें)



Akshargram Anugunj

एक ब्रह्मंड, एक सूर्य, एक धरती और एक ही आकाष है। मुझे तो समझ ही नहीं आया यह विशय। संस्कृति शब्द का बहुवचन व्याकरण की दृष्टि से भले ही ठीक हो परंतु वह कम से कम मेरी समझ से बाहर है। अक्सर पश्चिमी प्रणाली से शिक्षा प्राप्त करने के कारण हम भारत को भी बहु‑संस्कृति राष्ट्र जानते समझते हैं। जब बात विश्व की हो रही हो, तब तो जो लोग भारत को एक संस्कृति में पिरोया हुआ पाते हैं वे भी विश्व में नाना प्रकार की संस्कृति(यों) के होने की बात करते हैं परंतु मेरी समझ कुछ भिन्न है। मेरे विचार से संस्कृति केवल एक ही है। हम संस्कृति किसे कहते हैं? संस्कार का अर्थ है परिमार्जन (मुझे हिन्दी की पारंपरिक शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ, पर कुछ बातें यूं ही चलते फिरते बस कुछ लोगों के मात्र सान्निध्य से ही पता चल जाती हैं) । तो मेरे विचार से संस्कृति हम उस ताने बाने को कह सकते हैं जिसकी बैसाखियां पकड कर हम अपने आपको, अपने आस पास वालों को, अपनी व्यवस्था को, अपने तंत्र को अपने उद्देश्यों के अनुकूल परिमार्जित करते हैं। हमारी संस्कृति कैसी हो? जो हमें अपने उद्देश्यों की प्राप्ती करवाए।

अब प्रश्न यह आता है कि हमारे उद्देश्य कैसे हों? हमारे जीवन में असंख्य उद्देश्य होते हैं। आवश्यक्ता है कि वे मूल्य परायण हों। क्या आपने विभिन्न सामाजिक एवं भूगौलिक परिस्थितियों में मनुष्यों को अलग अलग मूल्यों का प्रतिपादन करते सुना देखा है? ऐसा कौनसा सामाज है जो बन्धुत्व, सत्य निष्ठा, कर्मण्यता, प्रजातंत्र, आदी मूल्यों को छोडने को कहता है? ऐसे कौनसे मूल्य हैं जिनके लिए आपका मत बिन पैंदे के लोटे सामान है? ऐसे कौनसे मूल्य हैं जो आपके लिए तो वरणीय हैं परंतु मेरे लिए नहीं? मानव जीवन के मूल्य सार्वभौमिक हैं। हम वसुधैव कुटुम्बकम्ब में विश्वास करते हैं। हम जहां कृण्वंतो विश्वार्यम् (यहां इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि आर्य शब्द यहां किसी जाती विशेष के लिए नहीं अपितु श्रेष्ठ के अर्थ में प्रयोग किया गया है) के सूत्र में विश्वास करते हैं वहीं हम ‘श्रेष्ठ विचार चारों दिशाओं से आने दें’ के सूत्र में भी विश्वास करते हैं। यह है कॉस्मोपॉलिटन की भारतीय व्याख्या। अच्छा मुझे भारत का बीडा उठाने का दंभ नहीं है। ये है मेरी व्याख्या, आपको यदी समझ आये तो आप इसे स्वीकार कर सकते हैं और आपको यदी ना समझ आए तो मुझे भी अन्यथा समझाने का प्रयास कर सकते हैं।

जहां उपर उल्लेखित मूल्यों का ह्रास होता है उन सामाजों को सुसंस्कृत के विशेषण से तो निश्चित ही सुषोभित नहीं करते। किसी भी प्रकार के दमन को, किसी भी हिटलर के साम्राज्य को पूरे विश्व ने ही अस्वीकार किया है। जब जब जलियांवाला बाग कहीं भी हुआ, जब जब इस दुनिया में इंदिरा गांधी जैसे कुशल प्रशासकों ने भी प्रजा के अधिकारों का हनन किया, तब तब उनकी भर्तस्ना ही की गयी है। इस प्रकार के कृत्यों को हमेशा अपसंस्कृति ही माना गया है। इस प्रकार की मंशा रखने वालों के संहार की ही प्रेरणा दी गयी है।

यदी पूरे विश्व की संस्कृति एक ही है, तो हमें नाना प्रकार के आचरण क्यों दिखते हैं? इसके कई कारण हैं। इस लेख में मैं उन सब कारणों को ढूंढने का दायित्व तो नहीं उठाउंगा पर हां कुछ एक की तरफ इशारा अवश्य करने का प्रयास करुंगा। जो नाना प्रकार के आचरण हमें देखने को मिलते हैं वे वास्तव में आधारभूत मूल्यों की भांती भांती की व्याख्या मात्र हैं। कइ बार आचरण का भेद वातावरण के भेद में छुपा होता है। एक उदाहरण है अहिंसा का। अहिंसा का मूल्य सार्वभौमिक है। पूर्व और पश्चिम की बात छोडें आप इधर ही इस मूल्य को समझने के अंतर पर गौर करें - एक तरफ हैं गांधी जी जो आततायिओं को क्षमा और ह्र्दय परिवर्तन की बात करते हैं और दूसरी तरफ हैं कृष्ण जो युद्ध क्षेत्र में संहार को हिंसक प्रवृत्ति नहीं मानते। कुछ लोग खाने के लिए जानवरों को मारने को हिंसा नहीं मानते और जिस प्रकार के परिवार से मैं आता हूं वहां जानवर तो नहीं मारते पर मच्छर मारने की दवा छिडकने को हिंसा नहीं माना जाता। हिंसा बुरी है – यह सब मानते हैं – पर किस आचरण को हिंसा कहा जा सकता है उसमें भेद हैं।

यदी इस चर्चा को पूर्व और पश्चिम के आचरणों की असमानताओं की चर्चा किए बिना ही छोड दिया जाए तो हो सकता है कि कोइ महानुभाव मुड कर आएं और बोलें कि मुख्य मुद्दा तो उठाया ही नहीं। चलिए हम उस विशय को उठाते हैं जिसके बारे में सबसे अधिक सुनने को मिलता है, जिसे मीडिया में सबसे अधिक उछाला जाता है। वह विशय है महिलाओं में नग्नता का।

हम (भारत में) महिलाओं की नग्नता से इतने विचलित क्यों हो जाते हैं? मुझे संस्कृत भाषा विद्वानों ने बताया है कि ‘ताला’ शब्द का समतुल्य शब्द संस्कृत भाषा में नहीं पाया जाता। उनका कहने का तात्पर्य यह था कि हम दूसरे के माल पर हाथ नहीं डालते, लूटना तो दूर हमारे यहां तो ताले भी नहीं लगते थे। सामाज में कपडे पहनने चाहिएं यह हर जगह माना जाता है, पर कितने इस विशय पर अलग अलग समझ है। एक तरफ न्यूडिस्ट समुद्र तट हैं और दूसरी तरफ जामा मस्जिद की गलियों में बुर्का बंद सुन्दरियां। डाके दोनों परिवेशों में ही डलते हैं। क्या हमारे पास कोइ सांख्यिकी सिद्ध निष्कर्ष हैं कि कहां अधिक डलते हैं? क्या हम बुर्का उठाएंगे या न्यूडिस्ट समुद्र तट पर उत्पात मचाएंगे? कुछ लोग ताला रहित अस्तित्व की आकांक्षा रखते हैं – क्या हम अपने काम से काम रखेंगे? यह इतना बडा स्तंभ नहीं है जितना इसे बना दिया जाता है। वैसे कपडे पहनने चाहिएं के पक्ष में मैंने हमेशा यह सुना है कि ‘शर्म के लिए’ पहनने चाहिएं। क्या शर्म सांस्कृतिक मूल्य है? मेरे विचार से तो शर्म अपराध-जनित भावना है न कि अपने आप में कोइ मूल्य। एक और विशय है पुरुष स्त्री सम्बन्धों का परंतु उसे अभी इस लेख के दायरे में उठाने से लेख लंबा हो जाएगा तो इसलिए वह फिर कभी।

मुझे मेरे पिता जी के सहकर्मी और मित्र, जो दिल्ली में गणित पढाते हैं, की एक बात याद आती है। जब मैं ग्यारहवीं बारहवीं कक्षा में था तो अक्सर उनसे दिशा निर्देष लेने जाया करता था। अपने विधार्थी काल में वे अमेरिका शोध करने गए थे और कार्य को पूरी तरह निश्पादित किए बिना ही वापिस चले आए। उन्होंने एक बार बताया कि इसपर उनके गुरु जी ने उन्हें कहा कि अगली बार तुम्हें शराब भी पीनी पडे तो पी लेना पर शोध समाप्त किए बिना वापिस मत आना। शराब ना पीने के पीछे मूल्य है स्वास्थ्य (शरीर और बुद्धी) रक्षा। पर साथ ही दूसरा सांस्कृतिक मूल्य है प्रकल्पों का निश्पादन। इस उदाहरण से न तो मैं शराब पीने की अनुशंसा कर रहा हूं और ना ही ऐसा सोचता हूं कि गुरु जी कर रहे थे। मैं केवल इतना कह रहा हूं कि विशुद्ध सांस्कृतिक मूल्य परायणता जो प्रकल्पों को फलित नहीं होने देती से तुलनात्मक समझौता अधिक व्यवहारिक रहता है।

मुझे संस्कृति क्या है, क्या नहीं इस बात की इतनी परवाह नहीं रहती। संस्कृति कोई जड वस्तु तो है नहीं। मैं जितना उससे लेता हूं उतना ही उसे प्रभावित भी करता हूं। आवश्यक्ता है कि हम उद्देश्य परायण और मूल्य परायण रहें और उस परिधी में प्रयोग धर्मिता का वरण करें। प्रयोग धर्मिता ही हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को प्रासंगिक रख सकती है। प्रयोग धर्मिता के अभाव में अभिव्यक्ति के अप्रासंगिक होने का सीधा प्रभाव हमारे मनोबल पर पडता है। मनोबल क्षीण होने से हममें हीन भावना आती है और हम किराए की अभिव्यक्ति अपना लेते हैं। प्रयोग धर्मिता जनित सांस्कृतिक अभिव्यक्ति ही हममें उस अभिमान का संचार कर सकती है जो जातियों के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। डार्विन का सरवाइवल ऑफ द् फिट्टेस्ट सिद्धांत न केवल पशु प्रजातियों पर लागु होता है अपितु वह किसी भी जीवंत प्रणाली पर भी लागू होता है।

अस्तित्व का अर्थ है – अपने होने की चेतना। मुझे इस बात का अवश्य चिंतन रहता है कि कहीं वह चेतना ही ना लुप्त हो जाए। समूची चेतना तो लुप्त नहीं होती पर आज की वैश्विक व्यवस्था में हमारी अभिव्यक्ति अवश्य कमजोर पड रही है। कौन है इसका जिम्मेदार? सबसे अधिक वे जो वैश्विक व्यवस्था में हमारा नेतृत्व कर रहे हैं। विश्व से सम्बन्ध हम सेतू का निर्माण कर के स्थापित करेंगे या लोगों को तैरना सिखा कर? तैर कर हम कितना आदान प्रदान कर सकेंगे? सेतू स्थापित करते ही भारत को अपनी प्रतिभा से विश्व को चका-चौंध कर सकने का माध्यम मिलेगा।

मुझे एक लघु कथा याद आ रही है। जो शायद आपने भी दूसरी या तीसरी कक्षा में पढी होगी। एक कौवा था। उसे मोर बहुत अच्छे लगे – रूपवान जो होते हैं। उस कौवे ने एक मोर का गिरा हुआ पंख अपनी पूंछ में लगा लिया और लगा इतराने। जब वो मोरों के खेमे में पहुंचा तो मोरों ने उसे स्वीकार करने से मना कर दिया कि तुम तो बस स्वांग रच रहे हो, तुम कौवे हो। थक कर जब वो कौवों के पास वापिस गया तो उसे वहां से भी ‘नकली मोर’ कहकर निकाल दिया गया। ऐसा कोई भी सांस्कृतिक आदान प्रदान व्यर्थ है जो हमें नकली मोर बना दे। मैं कौवा हूं, मेरे दादा जी मुलतान से आए थे, मेरी मातृ भाषा हिन्दी है, मेरा देश पिछड रहा है आदी आदी जो भी तथ्य हैं अच्छे या बुरे – वे मुझे परिभाषित करते हैं – कल आज और कल, हम उन्हें नकार नहीं सकते।

मैं एक सार्वभौमिक संस्कृति की कल्पना करता हूं, जो उद्देश्य एवं मूल्य परायण है। मैं मूल्यों में समता और उद्देश्यों एवं अभिव्यक्ति में विविधता को देखता हूं। इस विविधता में, मैं अपने अस्तित्व के लिए अभिमान आवश्यक समझता हूं। मैं सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के आदान प्रदान का स्वागत करता हूं परंतु एक सर्जनात्मक रचनात्मक प्रक्रिया के उपरांत। मैं रचना में मौलिकता को एक आवश्यक कसौटी समझता हूं और यह भी समझता हूं कि मौलिकता केवल गहन आत्म-चेतना पश्चात ही सम्भव है। इसलिए मैं यह कहूंगा कि हम दूसरों को अवश्य सुनें पर पहले अपने को पहचानें और अपनी पहचान बनाएं।

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