Monday, July 17, 2006

अरे ओ हिन्दी ब्लॉगियों!

मैं यह पूछ्ना चाहता हूं कि क्या हम जब बोलना या लिखना शुरु करते हैं तो उसके पीछे क्या उद्देश्य होते हैं? क्या हम इसलिए लिखना शुरु करते हैं कि हम किसी भाषा में बड़ बड़ करना चाहते हैं या इसलिए कि हम कुछ कहना चाहते हैं?

कुछ समय पहले मैंने एक चिट्ठा लिखना शुरु किया। उसका नामकरण किया - क्या? क्यों? कैसे?। नारद के सम्बद्ध अधिकारियों ने मान लिया कि यह 'हिन्दी चिट्ठा' है । अब नाम तो अपने देश का भी भारत है - क्या यहां सारा कार्य भारतीय भाषाओं में ही होता है? बात यह है कि मेरी इच्छा थी कि एक चिट्ठा लिखना शुरु किया जाए और नारद ने मुझसे ऐसा कोइ समझौता नहीं किया कि यदी मैं इस चिट्ठे को हिन्दी के लिए आरक्षित कर दूंगा तो ही वे मेरे चिट्ठे में आनी वाली सब प्रवृष्टियों की झलक नारद में दिखलाएंगे!

नारद मेरे चिट्ठे की झलक अपने जाल स्थल पर प्रकाषित कर रहा है - इस बात का भी मुझे पता तब चला जब मेरी एक अंग्रेज़ी प्रवृष्टि पर कुछ अजीब टिप्पणियां पढने को मिलीं। वे लोग कहना तो यह चाहते थे कि मैंने हिन्दी भाषा के जाल स्थल (नारद) में अंग्रेज़ी प्रवृष्टि क्यों भेजी है पर वे बात को कुछ और ही दिशा में मोड़ते दिखे। आज अफसोस की बात है कि अंग्रेज़ी के व्यावहारिक ज्ञान के बिना संगणक का ज्ञान लगभग नामुमकिन सा ही है। पर फिर भी वे, जो ब्लॉगिंग करते हैं, यह जतलाना चाहते थे कि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती। कौन मानेगा उनकी बात? जिस दिन मुझे ऐसा प्राणी धरती पर घूमता मिलेगा जिसे अंग्रेज़ी का कख भी नहीं आता होगा और ब्लॉगिंग कर रहा होगा - मुझसे प्रसन्न दूसरा व्यक्ती ना होगा।

खैर इस प्रसंग को छोड़ें - कुछ समय से मुझे हिन्दी ब्लॉगियों से एक शिकायत है। अरे यार, ये हिन्दी में लिखने के लिए - बधाई है - बधाई है, बन्द करो! इससे आप किसी का कोइ भला नहीं करने वाले। यदी आपको लेख का मसाला विचारोत्तेजक लगता है, यदी आपको यह लगता है कि लेखक ने 'विशय' की बहस को किसी प्रकार से समृद्ध किया है तब निश्चित ही वह बधाई का पात्र बन जाता है।

मैं अपने इस चिट्ठे से दो वर्गों को निवेदन करना चाहूंगा - नारद के अधिकारियों से और हिन्दी ब्लॉगियों / प्रेमियों से।

नारद के अधिकारी गण आप लोग श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं। मैं आपकी व्यावहारिक कठिनायी भी समझ रहा हूं पर हर हिन्दी नामांकित ब्लॉग की हर प्रवृष्टि हिन्दी में ही होगी ऐसा ना सोचें। कृपया उन व्यक्तियों को जो नारद के माध्यम से प्रकाषित होना चाहते हैं उन्हें नियमों से अवगत करवाएं।

हिन्दी ब्लॉगियों / प्रेमियों से मेरा निवेदन यही है कि बात मुद्दे की करें और भाषा को अपने आप में मुद्दा ना बना लें। आज 'मुझे तो अंग्रेज़ी आती ही नहीं' के रवैये से क्या हम स्व-भाषा प्रेम दर्शा रहे हैं? आज जिसे अंग्रेज़ी नहीं आती वह व्यावहारिक रूप से भारत में अनपढ है! हिन्दी चलचित्रों की कास्टिंग तक रोमन में होती है। मुझे अंग्रेज़ी आती है पर मैं हिन्दी का विकल्प चुनता हूं। मुझे अंग्रेज़ी आती है पर मैं जब अपनी बात कहना चाहता हूं तब हिन्दी में बोलना पसंद करता हूं। जो मुद्दे के ऊपर अंग्रेज़ी में अपनी बात कहना चाहता है उसे कहने दें - वह मुद्दे की बहस को समृद्ध ही करेगा। जब हमारी संख्या बढ जाएगी, हिन्दी मात्र में ब्लॉगिग करने पर बधाई सन्देश रुक जाएंगे और हिन्दी के ब्लॉगों के अंदर ही वैचारिक दृष्टिकोणों की विविधता होगी, तब शायद आप अंग्रेज़ी को वैसे ही हाशिए पर बैठने के लिए कह सकें जैसे स्पेनिश को या ग्रीक को।

रही बात मेरी - हिन्दी मेरी मां है। और अंग्रेज़ी मेरे हाथ एक उपयोगी उपकरण। दोनों से मैने काफी प्राप्त किया है तो मैं दोनो भाषाओं में लिखूंगा, अपने श्रोताओं को देखते हुए, अपने उद्देश्य के अनुसार। अपने मूड के अनुसार!

क्या हम हिन्दी को भी वैसा ही उपयोगी दर्जा नहीं दिलवा सकते? दिलवा सकते हैं पर आज की तरीख में अंग्रेज़ी के प्रयोग के बिना नहीं। कैसे दिलवा सकते हैं इस पर फिर कभी...

Thursday, July 13, 2006

Booom Blaa

In the light of current bombings Mumbaikars have been praised for their never-say-die spirit. Mumbai has been acclaimed for its ability to restore to normalcy almost instantaneously. I think these are very kind and encouraging words. I also think Mumbaikars live in a situation that can at best be labeled as 'no-option'.

We had similar blasts in Delhi also last year just before Diwali but the celebrations did not stop. The life did not stop. The markets flourished as ever.

Some people then also said it is the spirit of the city. Some people had said the un-affected people who continue to celebrate their Diwali are callous. I have a different understanding of the phenomenon Mumbai or Delhi or any other place here in Bharat exhibit.

Ours is a populous country. Let’s accept it - life is cheaper here. In a country of a Billion a few hundred is a small number. As the victims were being fired to ashes, the Sensex was soaring! What is the impact on GDP? Nothing much the share-bazaar pundits opine.

We have a long history of experiencing terrorism and have not been able to eradicate it. Let’s accept it - we have come to accept terrorism just like we accept fiery acts of nature or god.

In a life that is already stretched and severely constricted for paucity of infrastructure and its resultant debilitating situations, one doesn’t want to impose yet another confining constraint. Let’s accept it there would be floods, there would be lightening and then there would be the bombs.

How else do you think the citizens could react? Or should react? If not by getting up the next morning and continuing to run business as usual?

Yes sometimes there would be knee-jerk reactions from worried grand-mothers who will make futile attempts to stop their grand-sons from venturing out. Those would be exceptions. Some might contemplate giving up traveling by local train. But those who are familiar with Mumbai's structure know it is not a viable long term option. No it is not even a viable short-term option. Besides we all understand that lightening can fall just about anywhere. The probability that it would fall exactly on the same place twice is miniscule.
So we do not know when and where the next bombing will happen. In the meantime – पतली गली से कट ले और अपने काम पर चल।

Tuesday, July 04, 2006

हे मुम्बइ! फिर मिलेंगे...

क्या झमाझम झम झम झम बारिश गिर रही है! ऐसे लगता है कोइ बाल्टी लेकर ऊपर से पानी नीचे फैंके जा रहा है। ऐसे लगता है किसी ने ट्यूबवैल का फव्वारा चला दिया हो!

आज सुबह मैं जल्दी उठा, मेरे एक दोस्त नें हवाइ अड्डे का एक काम सौंपा था। कल मैंने उसे कहा था कि यहां बहुत अस्तव्यस्तता फैली हुइ है मैं निश्चित नहीं कह सकता कि तेरे कार्य को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर सकूं। खैर उसका काम तो निपट गया और फिर मैं ऑफिस के लिए चल दिया पर लगभग ऑफिस तक पहुंच कर बैरंग वापिस लौटना पडा। सारे रास्ते बंद मिले। वापिस जब लौटा और घर के पास पहुंचा तो घर पहुंचने का रास्ता भी आज बंद मिला है।

अब ‘हाइवे कहलाने वाली’ सडक पर एक कोने में गाडी खडी कर के आपको वृत्तांत लिख अपना समय काट रहा हूं। मेरे विचार से मुझे एक सुरक्षित सा कोना मिल गया है और यहां कोइ खतरा नहीं होना चाहिए!

सडक पर चारों तरफ कोलाहल है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट लगभग बन्द सा है और लोग छतरी सिर के ऊपर लगाने का जैसे शगुन सा करते हुए इधर उधर भटकते हुए अपने अपने ठिकानों को पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं।

यहां तक मैंने सडक के कोने से ही लिखा था।

फिर मेरे ऑफिस के सहकर्मी जो घर के पास ही रहते हैं आ गये थे और उन्होंने कहा कि चलो यहां से अब पैदल ही घर चलते हैं। एक हाथ में जूते और दूसरे हाथ में लैपटॉप और छतरी लिए मैं अनमने भव से साथ चल दिया। पर जब पानी घुटनों से ऊपर आने लगा तो मैं वापिस लौट लिया। इसके बाद मैं गुड्डी बुआ के घर चला गया और वहां पकौडे खा कर सो गया।

मुम्बइ की बारिश से मेरा पहला साक्षात्कार लगभग सोलह साल पहले हुआ था जब मैं अपने अभियांत्रिकी प्रशिक्षण के लिए यहां एक महीना रुका था। मुझे याद है कि मैं नये नये जूते खरीद के लाया था और पता नहीं किस तरह मां का कहना मान पुराने जूते भी रख लाया था। फिर नये जूते मैंने यहां केवल एक दिन पहने थे। मैंने गिनती की थी कि 18 दिनों तक मुझे सूर्य नहीं दिखा था जिससे मेरे जैसे खुश्क प्राणी को बहुत परेशानी हुयी थी।

निम्न, मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के लिए भी यह शहर बहुत चुनौती भरा शहर है। जब बारिश नहीं हो रही होती तब भी किसी एक स्थान से दूसरे स्थान जाना अपने आप में एक प्रकल्प सा बन जाता है। यदी आप 2 कि0मी0 दूर जाकर भी वापिस लौटना चाहते हैं तो भी आप इस बात की भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि आप 15 मिनट में लौटेंगे या 2 घंटे में। मुम्बइ में कई पती पत्नियों के बीच इस कारण भी काफी झगडे हो जाते हैं क्योंकि स्वभाव से शकी महिलाएं सोचने लगती हैं कि 5 मिनट की दूरी 2 घंटे में तय कर के आया है ज़रूर दाल में कुछ काला है!

पर ये चुनौतियां वे वाली चुनौतियां नहीं हैं जिनको लांघ कर हम ज़माना बदलते हैं। ये असल में एक सम्भवत: तेजस्वी और वैभवशाली समाज की प्रगती के रोड़े हैं। मुम्बइ में केवल एक कार्य करने के लिए ही बाहर से आकर यहां बसा जा सकता है और वह है इस शहर की व्यवस्था सुधारना। पर मैं खुद इस शहर में नौकरी के पीछे पीछे आया था और हर रोज़ असंख्य जनता रोज़ी रोटी के लिए अपना रास्ता मुम्बइ की तरफ कर लेती है।

खैर छोडो मुम्बइ की समस्याओं को – दसवीं मंज़िल पर मॉनसून के नज़ारे बहुत लुभावने हैं। यदी दुनियादारी और रोटी कमाने की चिंता ना हो तो यहां की बारिश वाह क्या मज़ेदार है। समुद्र यदी आपकी खिड़की के आसपास नहीं भी है तो भी हवाएं ऐसी चलती हैं मानो आप समुद्र तट पर ही खडे हों। इस मॉनसून को मिला कर मैंने मुम्बइ के 4 मॉनसून देख लिए हैं और हर बार उसने मुझे अपने स्वरूप से प्रसन्न, विस्मित और परेशान किया है।

पिछ्ले साल जो 26 जुलाई को हुआ मैं उसके आनंद से विमुख रह गया था। आनंद? हज़ारों जानें गयीं हज़ारों करोड़ का नुकसान हुआ और मैं उसे आनंद कह रहा हूं? पिछली साल मैं बाल बाल बच गया था 26 जुलाई के अनुभव से। मैं दिल्ली हवाई अड्डे पर मुम्बइ के लिए विमान लेने के लिए खड़ा था कि पता चला कि मुम्बइ के लिए सभी हवाई सेवाएं रद्द कर दी गयी हैं। इण्डियन एयरलाइंस वालों ने जब हमे होटल में भेज दिया और कमरे पहुंच कर जब मैंने टीवी खोला और कुछेक मित्र सम्बन्धियों से मुम्बइ में सम्पर्क किया तो मैंने कहा शुक्र है यहां दिल्ली में फंसा नहीं तो सम्भव था कि महालक्ष्मी स्टेशन के एक कोने में बारिश से बचने के लिए छ्त ढूढ रहा होता! पर अगर ऐसा हो भी जाता तो हो जाता... उसे मैं वैसे ही लेता जैसे मुम्बइ वासी रोजमर्रा की चुनौतियों को लेते हैं – स्पोर्टस् स्पिरिट में।

पर मेरे लिए मुम्बइ के स्पोर्टस् बतेरे हो गए हैं। मुझे जहां जितनी इस बात की खुशी है कि मुझे कोपनहेगन, जो शायद पृथिवी के चुनिंदा सुरम्य शहरों की श्रेणी में आता है, मैं एक साल रह कर पढने का मौका मिला है वहां उससे अधिक इस बात की तसल्ली है कि मुम्बइ के स्पोर्टस् का स्थान सामान्यत: स्पोर्टस् समझे जानी वाली गतिविधियां ले सकेंगी!

Friday, May 19, 2006

अनुगूँज १९: संस्कृतियाँ दो और आदमी एक

(वर्तनी की असंख्य अशुद्धियों पर ध्यान ना दें)



Akshargram Anugunj

एक ब्रह्मंड, एक सूर्य, एक धरती और एक ही आकाष है। मुझे तो समझ ही नहीं आया यह विशय। संस्कृति शब्द का बहुवचन व्याकरण की दृष्टि से भले ही ठीक हो परंतु वह कम से कम मेरी समझ से बाहर है। अक्सर पश्चिमी प्रणाली से शिक्षा प्राप्त करने के कारण हम भारत को भी बहु‑संस्कृति राष्ट्र जानते समझते हैं। जब बात विश्व की हो रही हो, तब तो जो लोग भारत को एक संस्कृति में पिरोया हुआ पाते हैं वे भी विश्व में नाना प्रकार की संस्कृति(यों) के होने की बात करते हैं परंतु मेरी समझ कुछ भिन्न है। मेरे विचार से संस्कृति केवल एक ही है। हम संस्कृति किसे कहते हैं? संस्कार का अर्थ है परिमार्जन (मुझे हिन्दी की पारंपरिक शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ, पर कुछ बातें यूं ही चलते फिरते बस कुछ लोगों के मात्र सान्निध्य से ही पता चल जाती हैं) । तो मेरे विचार से संस्कृति हम उस ताने बाने को कह सकते हैं जिसकी बैसाखियां पकड कर हम अपने आपको, अपने आस पास वालों को, अपनी व्यवस्था को, अपने तंत्र को अपने उद्देश्यों के अनुकूल परिमार्जित करते हैं। हमारी संस्कृति कैसी हो? जो हमें अपने उद्देश्यों की प्राप्ती करवाए।

अब प्रश्न यह आता है कि हमारे उद्देश्य कैसे हों? हमारे जीवन में असंख्य उद्देश्य होते हैं। आवश्यक्ता है कि वे मूल्य परायण हों। क्या आपने विभिन्न सामाजिक एवं भूगौलिक परिस्थितियों में मनुष्यों को अलग अलग मूल्यों का प्रतिपादन करते सुना देखा है? ऐसा कौनसा सामाज है जो बन्धुत्व, सत्य निष्ठा, कर्मण्यता, प्रजातंत्र, आदी मूल्यों को छोडने को कहता है? ऐसे कौनसे मूल्य हैं जिनके लिए आपका मत बिन पैंदे के लोटे सामान है? ऐसे कौनसे मूल्य हैं जो आपके लिए तो वरणीय हैं परंतु मेरे लिए नहीं? मानव जीवन के मूल्य सार्वभौमिक हैं। हम वसुधैव कुटुम्बकम्ब में विश्वास करते हैं। हम जहां कृण्वंतो विश्वार्यम् (यहां इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि आर्य शब्द यहां किसी जाती विशेष के लिए नहीं अपितु श्रेष्ठ के अर्थ में प्रयोग किया गया है) के सूत्र में विश्वास करते हैं वहीं हम ‘श्रेष्ठ विचार चारों दिशाओं से आने दें’ के सूत्र में भी विश्वास करते हैं। यह है कॉस्मोपॉलिटन की भारतीय व्याख्या। अच्छा मुझे भारत का बीडा उठाने का दंभ नहीं है। ये है मेरी व्याख्या, आपको यदी समझ आये तो आप इसे स्वीकार कर सकते हैं और आपको यदी ना समझ आए तो मुझे भी अन्यथा समझाने का प्रयास कर सकते हैं।

जहां उपर उल्लेखित मूल्यों का ह्रास होता है उन सामाजों को सुसंस्कृत के विशेषण से तो निश्चित ही सुषोभित नहीं करते। किसी भी प्रकार के दमन को, किसी भी हिटलर के साम्राज्य को पूरे विश्व ने ही अस्वीकार किया है। जब जब जलियांवाला बाग कहीं भी हुआ, जब जब इस दुनिया में इंदिरा गांधी जैसे कुशल प्रशासकों ने भी प्रजा के अधिकारों का हनन किया, तब तब उनकी भर्तस्ना ही की गयी है। इस प्रकार के कृत्यों को हमेशा अपसंस्कृति ही माना गया है। इस प्रकार की मंशा रखने वालों के संहार की ही प्रेरणा दी गयी है।

यदी पूरे विश्व की संस्कृति एक ही है, तो हमें नाना प्रकार के आचरण क्यों दिखते हैं? इसके कई कारण हैं। इस लेख में मैं उन सब कारणों को ढूंढने का दायित्व तो नहीं उठाउंगा पर हां कुछ एक की तरफ इशारा अवश्य करने का प्रयास करुंगा। जो नाना प्रकार के आचरण हमें देखने को मिलते हैं वे वास्तव में आधारभूत मूल्यों की भांती भांती की व्याख्या मात्र हैं। कइ बार आचरण का भेद वातावरण के भेद में छुपा होता है। एक उदाहरण है अहिंसा का। अहिंसा का मूल्य सार्वभौमिक है। पूर्व और पश्चिम की बात छोडें आप इधर ही इस मूल्य को समझने के अंतर पर गौर करें - एक तरफ हैं गांधी जी जो आततायिओं को क्षमा और ह्र्दय परिवर्तन की बात करते हैं और दूसरी तरफ हैं कृष्ण जो युद्ध क्षेत्र में संहार को हिंसक प्रवृत्ति नहीं मानते। कुछ लोग खाने के लिए जानवरों को मारने को हिंसा नहीं मानते और जिस प्रकार के परिवार से मैं आता हूं वहां जानवर तो नहीं मारते पर मच्छर मारने की दवा छिडकने को हिंसा नहीं माना जाता। हिंसा बुरी है – यह सब मानते हैं – पर किस आचरण को हिंसा कहा जा सकता है उसमें भेद हैं।

यदी इस चर्चा को पूर्व और पश्चिम के आचरणों की असमानताओं की चर्चा किए बिना ही छोड दिया जाए तो हो सकता है कि कोइ महानुभाव मुड कर आएं और बोलें कि मुख्य मुद्दा तो उठाया ही नहीं। चलिए हम उस विशय को उठाते हैं जिसके बारे में सबसे अधिक सुनने को मिलता है, जिसे मीडिया में सबसे अधिक उछाला जाता है। वह विशय है महिलाओं में नग्नता का।

हम (भारत में) महिलाओं की नग्नता से इतने विचलित क्यों हो जाते हैं? मुझे संस्कृत भाषा विद्वानों ने बताया है कि ‘ताला’ शब्द का समतुल्य शब्द संस्कृत भाषा में नहीं पाया जाता। उनका कहने का तात्पर्य यह था कि हम दूसरे के माल पर हाथ नहीं डालते, लूटना तो दूर हमारे यहां तो ताले भी नहीं लगते थे। सामाज में कपडे पहनने चाहिएं यह हर जगह माना जाता है, पर कितने इस विशय पर अलग अलग समझ है। एक तरफ न्यूडिस्ट समुद्र तट हैं और दूसरी तरफ जामा मस्जिद की गलियों में बुर्का बंद सुन्दरियां। डाके दोनों परिवेशों में ही डलते हैं। क्या हमारे पास कोइ सांख्यिकी सिद्ध निष्कर्ष हैं कि कहां अधिक डलते हैं? क्या हम बुर्का उठाएंगे या न्यूडिस्ट समुद्र तट पर उत्पात मचाएंगे? कुछ लोग ताला रहित अस्तित्व की आकांक्षा रखते हैं – क्या हम अपने काम से काम रखेंगे? यह इतना बडा स्तंभ नहीं है जितना इसे बना दिया जाता है। वैसे कपडे पहनने चाहिएं के पक्ष में मैंने हमेशा यह सुना है कि ‘शर्म के लिए’ पहनने चाहिएं। क्या शर्म सांस्कृतिक मूल्य है? मेरे विचार से तो शर्म अपराध-जनित भावना है न कि अपने आप में कोइ मूल्य। एक और विशय है पुरुष स्त्री सम्बन्धों का परंतु उसे अभी इस लेख के दायरे में उठाने से लेख लंबा हो जाएगा तो इसलिए वह फिर कभी।

मुझे मेरे पिता जी के सहकर्मी और मित्र, जो दिल्ली में गणित पढाते हैं, की एक बात याद आती है। जब मैं ग्यारहवीं बारहवीं कक्षा में था तो अक्सर उनसे दिशा निर्देष लेने जाया करता था। अपने विधार्थी काल में वे अमेरिका शोध करने गए थे और कार्य को पूरी तरह निश्पादित किए बिना ही वापिस चले आए। उन्होंने एक बार बताया कि इसपर उनके गुरु जी ने उन्हें कहा कि अगली बार तुम्हें शराब भी पीनी पडे तो पी लेना पर शोध समाप्त किए बिना वापिस मत आना। शराब ना पीने के पीछे मूल्य है स्वास्थ्य (शरीर और बुद्धी) रक्षा। पर साथ ही दूसरा सांस्कृतिक मूल्य है प्रकल्पों का निश्पादन। इस उदाहरण से न तो मैं शराब पीने की अनुशंसा कर रहा हूं और ना ही ऐसा सोचता हूं कि गुरु जी कर रहे थे। मैं केवल इतना कह रहा हूं कि विशुद्ध सांस्कृतिक मूल्य परायणता जो प्रकल्पों को फलित नहीं होने देती से तुलनात्मक समझौता अधिक व्यवहारिक रहता है।

मुझे संस्कृति क्या है, क्या नहीं इस बात की इतनी परवाह नहीं रहती। संस्कृति कोई जड वस्तु तो है नहीं। मैं जितना उससे लेता हूं उतना ही उसे प्रभावित भी करता हूं। आवश्यक्ता है कि हम उद्देश्य परायण और मूल्य परायण रहें और उस परिधी में प्रयोग धर्मिता का वरण करें। प्रयोग धर्मिता ही हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को प्रासंगिक रख सकती है। प्रयोग धर्मिता के अभाव में अभिव्यक्ति के अप्रासंगिक होने का सीधा प्रभाव हमारे मनोबल पर पडता है। मनोबल क्षीण होने से हममें हीन भावना आती है और हम किराए की अभिव्यक्ति अपना लेते हैं। प्रयोग धर्मिता जनित सांस्कृतिक अभिव्यक्ति ही हममें उस अभिमान का संचार कर सकती है जो जातियों के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। डार्विन का सरवाइवल ऑफ द् फिट्टेस्ट सिद्धांत न केवल पशु प्रजातियों पर लागु होता है अपितु वह किसी भी जीवंत प्रणाली पर भी लागू होता है।

अस्तित्व का अर्थ है – अपने होने की चेतना। मुझे इस बात का अवश्य चिंतन रहता है कि कहीं वह चेतना ही ना लुप्त हो जाए। समूची चेतना तो लुप्त नहीं होती पर आज की वैश्विक व्यवस्था में हमारी अभिव्यक्ति अवश्य कमजोर पड रही है। कौन है इसका जिम्मेदार? सबसे अधिक वे जो वैश्विक व्यवस्था में हमारा नेतृत्व कर रहे हैं। विश्व से सम्बन्ध हम सेतू का निर्माण कर के स्थापित करेंगे या लोगों को तैरना सिखा कर? तैर कर हम कितना आदान प्रदान कर सकेंगे? सेतू स्थापित करते ही भारत को अपनी प्रतिभा से विश्व को चका-चौंध कर सकने का माध्यम मिलेगा।

मुझे एक लघु कथा याद आ रही है। जो शायद आपने भी दूसरी या तीसरी कक्षा में पढी होगी। एक कौवा था। उसे मोर बहुत अच्छे लगे – रूपवान जो होते हैं। उस कौवे ने एक मोर का गिरा हुआ पंख अपनी पूंछ में लगा लिया और लगा इतराने। जब वो मोरों के खेमे में पहुंचा तो मोरों ने उसे स्वीकार करने से मना कर दिया कि तुम तो बस स्वांग रच रहे हो, तुम कौवे हो। थक कर जब वो कौवों के पास वापिस गया तो उसे वहां से भी ‘नकली मोर’ कहकर निकाल दिया गया। ऐसा कोई भी सांस्कृतिक आदान प्रदान व्यर्थ है जो हमें नकली मोर बना दे। मैं कौवा हूं, मेरे दादा जी मुलतान से आए थे, मेरी मातृ भाषा हिन्दी है, मेरा देश पिछड रहा है आदी आदी जो भी तथ्य हैं अच्छे या बुरे – वे मुझे परिभाषित करते हैं – कल आज और कल, हम उन्हें नकार नहीं सकते।

मैं एक सार्वभौमिक संस्कृति की कल्पना करता हूं, जो उद्देश्य एवं मूल्य परायण है। मैं मूल्यों में समता और उद्देश्यों एवं अभिव्यक्ति में विविधता को देखता हूं। इस विविधता में, मैं अपने अस्तित्व के लिए अभिमान आवश्यक समझता हूं। मैं सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के आदान प्रदान का स्वागत करता हूं परंतु एक सर्जनात्मक रचनात्मक प्रक्रिया के उपरांत। मैं रचना में मौलिकता को एक आवश्यक कसौटी समझता हूं और यह भी समझता हूं कि मौलिकता केवल गहन आत्म-चेतना पश्चात ही सम्भव है। इसलिए मैं यह कहूंगा कि हम दूसरों को अवश्य सुनें पर पहले अपने को पहचानें और अपनी पहचान बनाएं।

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